जैसा कि अब तक समझ पाया हूँ जीवन को ये चाहतों के सिवा कुछ नहीं है. जीवन के
हर चरण पर, जीवन की हर स्थिति पर एक नयी चाहत, वो पूर्ण हुई तो फिर कोई और नयी चाहत
ये क्रम समाप्त नहीं होता ....
आज फिर एक अनोखी सी चाहत है मन में
धरती पर आते ही चाहत है भूख मिटाने की
फिर प्यास बुझाने की चाहत
फिर उस खिलोने की चाहत , उस तितली की चाहत
वो पतंग न कटती तो क्या हो जाता?
उस बुलबुले को पकड़ पाने की चाहत
कुछ पूरी हुई कुछ अधूरी हैं
उस अधूरेपन का क्या कहूं , अब उसे पूरा भुला पाने की चाहत है मन में
आज फिर एक अनोखी सी चाहत है मन में
तुम जैसा पाने की चाहत , फिर तुम्हे अपना बनाने की चाहत
तुम्हे छू पाने की चाहत , फिर दिल लगाने की चाहत
तुम्हे हर लम्हा देख पाने की चाहत , फिर अपलक रह जाने की चाहत
तुम्हे दुनिया दिखाने की चाहत , फिर तुम संग दुनिया बसाने की चाहत
आज तुम नहीं हो , कहीं नहीं हो और अब
तुम्हे भूल पाने की चाहत है मन में
आज फिर एक अनोखी सी चाहत है मन में
उन आँखों में ऑंखें मिलाने की चाहत , फिर आँखों में समां जाने की चाहत
कहीं न कहीं मन को पता तो था ही भविष्य का
फिर भी आँखों से बात कर पाने की चाहत
आज फिर वही ऑंखें हैं , वही मै हूँ पर अब
बस इन आंसुओं को रोक पाने की चाहत है मन में
आज फिर एक अनोखी सी चाहत है मन में
कभी तुमसे अकेले मिल पाने की चाहत , फिर सबसे मिलवाकर परिवार बनाने की चाहत
कभी विद्रोह की चाहत , कभी सबको मना पाने की चाहत
कभी झूम कर गाने की चाहत , कभी चुपके से रो पाने की चाहत
ये जीवन है या विरोधाभास है कोई ,
लो अब पृथ्वी के ध्रुवों को मिला पाने की चाहत है मन में
आज फिर एक अनोखी सी चाहत है मन में
तुमसे आज कुछ सुनने की चाहत , और कुछ सुना पाने की चाहत
प्रेम जो पनप रहा है मन में उसे जता पाने की चाहत
ये जो प्रेम का सागर है ह्रदय में, ज़रा थाम लो प्रिये
इस वेग -लहर का मै आदी नहीं हूँ
भावों की सरिता व तरण -ताल को पार तो किया है मैंने
पर आज इस सागर में डूब जाने की चाहत है मन में
आज फिर एक अनोखी सी चाहत है मन में
ईश्वर उत्तर क्यूँ नहीं देता , ये जान पाने की चाहत
कैसे बांटता है तकदीर ये समझ पाने की चाहत
किसी को छाँव किसी को चिलकती धूप दी है
क्या सैय्यम की कोई सीमा भी तय की है ?
ये सब विचार ही तो है कवि के , समय के साथ बदल जाते हैं
कभी धर्म को न मानने की चाहत
देखो तुम्हारी कोई तस्वीर हाथ आ गयी , और अब
हर पत्थर पर सर झुकाने की चाहत है मन में
आज फिर एक अनोखी सी चाहत है मन में
तुमसे ही विषय पूछने की चाहत , फिर उस पर कविता बनाने की चाहत
भावों को आकार देने की चाहत , फिर तुमसे ही प्रशंसा की चाहत
सिलसिला चलता गया , तुम कहती गयी मै लिखता गया
आज जा रही हो सब छोड़कर , इस शब्द -कारा को तोड़ कर
मै कवि तो बन गया , पर शब्दों के संग अकेला रह गया हूँ
जानता हूँ की कविता ने ही मुझे नष्ट किया है
पर न जाने क्यूँ ........
पर न जाने क्यूँ तेरे जाने से पहले , फिर एक
अलविदा-गीत लिख पाने की चाहत है मन में
आज फिर एक अनोखी सी चाहत है मन में ..........
Monday, April 12, 2010
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