Monday, April 12, 2010

चाहत.......

जैसा कि अब तक समझ पाया हूँ जीवन को ये चाहतों के सिवा कुछ नहीं है. जीवन के
हर चरण पर, जीवन की हर स्थिति पर एक नयी चाहत, वो पूर्ण हुई तो फिर कोई और नयी चाहत
ये क्रम समाप्त नहीं होता ....

आज फिर एक अनोखी सी चाहत है मन में
धरती पर आते ही चाहत है भूख मिटाने की
फिर प्यास बुझाने की चाहत
फिर उस खिलोने की चाहत , उस तितली की चाहत
वो पतंग न कटती तो क्या हो जाता?
उस बुलबुले को पकड़ पाने की चाहत
कुछ पूरी हुई कुछ अधूरी हैं
उस अधूरेपन का क्या कहूं , अब उसे पूरा भुला पाने की चाहत है मन में
आज फिर एक अनोखी सी चाहत है मन में

तुम जैसा पाने की चाहत , फिर तुम्हे अपना बनाने की चाहत
तुम्हे छू पाने की चाहत , फिर दिल लगाने की चाहत
तुम्हे हर लम्हा देख पाने की चाहत , फिर अपलक रह जाने की चाहत
तुम्हे दुनिया दिखाने की चाहत , फिर तुम संग दुनिया बसाने की चाहत
आज तुम नहीं हो , कहीं नहीं हो और अब
तुम्हे भूल पाने की चाहत है मन में
आज फिर एक अनोखी सी चाहत है मन में

उन आँखों में ऑंखें मिलाने की चाहत , फिर आँखों में समां जाने की चाहत
कहीं न कहीं मन को पता तो था ही भविष्य का
फिर भी आँखों से बात कर पाने की चाहत
आज फिर वही ऑंखें हैं , वही मै हूँ पर अब
बस इन आंसुओं को रोक पाने की चाहत है मन में
आज फिर एक अनोखी सी चाहत है मन में

कभी तुमसे अकेले मिल पाने की चाहत , फिर सबसे मिलवाकर परिवार बनाने की चाहत
कभी विद्रोह की चाहत , कभी सबको मना पाने की चाहत
कभी झूम कर गाने की चाहत , कभी चुपके से रो पाने की चाहत
ये जीवन है या विरोधाभास है कोई ,
लो अब पृथ्वी के ध्रुवों को मिला पाने की चाहत है मन में
आज फिर एक अनोखी सी चाहत है मन में

तुमसे आज कुछ सुनने की चाहत , और कुछ सुना पाने की चाहत
प्रेम जो पनप रहा है मन में उसे जता पाने की चाहत
ये जो प्रेम का सागर है ह्रदय में, ज़रा थाम लो प्रिये
इस वेग -लहर का मै आदी नहीं हूँ
भावों की सरिता व तरण -ताल को पार तो किया है मैंने
पर आज इस सागर में डूब जाने की चाहत है मन में
आज फिर एक अनोखी सी चाहत है मन में

ईश्वर उत्तर क्यूँ नहीं देता , ये जान पाने की चाहत
कैसे बांटता है तकदीर ये समझ पाने की चाहत
किसी को छाँव किसी को चिलकती धूप दी है
क्या सैय्यम की कोई सीमा भी तय की है ?
ये सब विचार ही तो है कवि के , समय के साथ बदल जाते हैं
कभी धर्म को न मानने की चाहत
देखो तुम्हारी कोई तस्वीर हाथ आ गयी , और अब
हर पत्थर पर सर झुकाने की चाहत है मन में
आज फिर एक अनोखी सी चाहत है मन में

तुमसे ही विषय पूछने की चाहत , फिर उस पर कविता बनाने की चाहत
भावों को आकार देने की चाहत , फिर तुमसे ही प्रशंसा की चाहत
सिलसिला चलता गया , तुम कहती गयी मै लिखता गया
आज जा रही हो सब छोड़कर , इस शब्द -कारा को तोड़ कर
मै कवि तो बन गया , पर शब्दों के संग अकेला रह गया हूँ
जानता हूँ की कविता ने ही मुझे नष्ट किया है
पर न जाने क्यूँ ........
पर न जाने क्यूँ तेरे जाने से पहले , फिर एक
अलविदा-गीत लिख पाने की चाहत है मन में
आज फिर एक अनोखी सी चाहत है मन में ..........

Tuesday, October 27, 2009

पूरा चाँद

As all my previous posts were in sad mood, this time I tried 'श्रृगार -रस'.....



आज तुम साथ हो और मेरा चाँद पूरा है
तन मन वार दूं इस पल पर तेरे मन पर
जैसे पत्ते पर टिकी एक सुबह कि ओस हूँ मै
जब तक तू आधार है , सजल और ठोस हूँ मै
पूर्ण सूर्य बिम्बित है मुझमे अब , हाँ मुझे ये अहंकार है
सुहागन को ही पूर्ण कहते है यहाँ ए बूँद , यही तो संसार है
तुम बिन मेरा अहम् , बिम्ब व आधार अधूरा है ,
आज तुम साथ हो और मेरा चाँद पूरा है .

ये मंद हवा , ये निशा , ये ठहरा हुआ पल और तुम ,
स्तब्ध सासें , रुकी धड़कन , सिमटती दूरियां और तुम
आज जो छू ले इस मन को , जोगन बन जाए सुहागन
फिर ये भी स्वीकार है कि फिरूं आजीवन बनकर बिरहन
तेरी प्रीत कि भाषा से लिखा आज मेरा धर्म , ग्रन्थ और अर्थ है
यदि इश्वर विश्वास है तो वो तू ही है ,शेष भगवा , व्रत , पूजा तो व्यर्थ है
तेरा नाम जब पुकारूँ तो लगे अब भजन वो पूरा है ,
आज तुम साथ हो और मेरा चाँद पूरा है .

Monday, October 5, 2009

धूप में......

कल तोड़ रहा था पत्थर दिन की धूप में,
एक एक पत्थर तोड़ कर मैं सपने जोड़ रहा था
कुछ लोग जा रहे थे पास से,छाँव के रास्ते से
कुछ तरस खाते,कुछ उपहास करते,कुछ विधि को समझ न पाते
जीवन का संगीत खोजता मै कोयल की कूक में,
कल तोड़ रहा था पत्थर दिन की धूप में,

उन पथिकों में से एक रुका,देखा नव -योवना थी
नयापन कहो या विचित्रता,उसमें कुछ तो बात थी
मै पत्थरों को छोड़ इमारत की बात करता
वो अपने पथ को छोड़ मंजिलों की बात करती
हमने विचारों-कल्पनाओं का झोपड़ा सा बना लिया
जो टूट सकता है विधाता की एक फूक में ,
कल तोड़ रहा था पत्थर दिन की धूप में

उसने मुझसे वादे मांगे,कसमें मांगी और विश्वास दिया
मै खड़ा रह गया चिलकती धुप में जैसे अभी ठगा गया
एक कुल्हाड़ी और दो हाथ,कैसे निभाएंगे ये तेरा साथ
जिस देस महेल की तुम हो उसकी मै तो नीव बनता हूँ
सफ़ेद गुलाब हैं शौक तुम्हारे मै गरीब गेहूं उपजता हूँ
वादे कसमें टूट जाते हैं दो वक़्त की भूख में
कल तोड़ रहा था पत्थर दिन की धूप में .


उसके तो ऊंचे सपने थे,बात वो मेरी मान गयी
गेहूं और गुलाब का अंतर आज परी वो जान गयी
रास्ते उसके भी विरल थे, उसने चलना न छोड़ा
सांझ यहाँ अब हो चली थी,मैंने एक पत्थर और तोडा
अब फिर उसी एकांत में हूँ,पत्थरों से पथ बनाता
फिर किसी के रास्ते को स्वप्न में मन्ज़िल बनाता
अब सोचता हूँ काश उसको रोक लिया होता
फिर आंसू को मिट्टी ने शायद सोख लिया होता
आजीवन ग्लानि रहेगी उस पल भर की चूक में ,
कल तोड़ रहा था पत्थर दिन की धूप में .......

थकान ...

As most of us are away from our homes and families chasing the aims, Sometimes we get tired and we ask ourselves that why we are walking with bleary eyes now, when the decision was wholly ours to leave our homes......

आज क्यूँ थका थका जब स्वयं ही चुना था पथ
कल को सवारने कल चल दिया था
स्वजन की कोमल भावना को कल यहीं आहत किया था
जय के सारे साधन बटोरने
निज कर से दुनिया टटोलने , कल चल दिया था
आदि में एकांत था अब उस मेले में आ घिरा हूँ
परिचय है जहाँ पर पद से धन से ,उस उत्सव का हिस्सा बना हूँ
शिखर मन क्यूँ डोलता है , जब स्वयं ही ली थी शपथ .
आज क्यूँ थका थका जब स्वयं ही चुना था पथ


I still remember one of my classmates, who wanted to do MCA, but she couldn't. Reason being financial problems. Next stanza is dedicated to her....


आज क्यूँ पीछे जाने की चाहत है मन में ,
उन लोगों से मिल कर आने की चाहत है मनन में
जी चाहता है उन्हें भी साथ खींच लूँ
उन्हें भी दुनिया दिखाऊँ ...
जो गुण यहाँ सब में है , उसमे भी था ..
जो उत्साह यहाँ सब में है , उस में भी था ,
वो विशवास जल का बुलबुला था , जो उसे एक दिन खोना ही था ,
किस जीत से प्रसन्न थी कल , जब आज उसे रोना ही था
जो हमारा पेट भरता है , वह इसी देश का किसान है ,
मै जिसकी बात कर रहा हूँ वो इसी गरीब की संतान है .
आज कैसा प्रसन्न -चित्त जब मन में रह गयी कसक
आज क्यूँ थका थका जब स्वयं ही चुना था पथ.......

Monday, September 14, 2009

उस पल तुम्हारी याद आई ....

First of all thanks a lot for your appreciation for my previous posts. Please write comments, whether in a negative shade or a positive one. It gives chance as well as encouragement to improve my writings.

Shikha is also married now. She tells about her life. Shikhar asks her that now you are not that much bubbly kind of Girl whom I had left. Where is that 'Chanchala'??

Shikha--

चार कन्धों पर सजी उस दिन जो परिणय -यात्रा थी ,
शव 'चंचला' का डोली में था , वह उसकी अंतिम -यात्रा थी .
शहनाई -नगाड़ों ने इक पल के लिए सब भुला दिया था ,
पर जब रंग -हीन शव -राख ने लाल सिन्दूर की शकल थी पाई ,
उस पल तुम्हारी याद आई .

निश्चय ही कुछ कमी रही है , मेरे व्रत में -तप में
तभी आज ये दुर्भाग्य है मेरे संग .
कहाँ है वो पाषाण , जो सकल जग का आधार है और उनका अवलंब .
प्रसाद भी ठुकरा दिया था , उपहार भी ठुकरा दिया था ,
पर जब उस 'अक्षत -कलश ' को ठोकर लगायी ,
उस पल तुम्हारी याद आई .



वे झूठ कहते हैं की नारी सैय्यम्शील होती है ,
विधाता है नचाता सबको और काया मजबूर होती है .
धर्म के विपरीत जा रही थी मै , मन में पर -पुरुष का भाव था ,
चेहरे पर स्पष्ट परिलक्षित था , ह्रदय का जो घाव था .
पर जब उन्होंने मौन रह कर मुझसे प्रतिउत्तर की आस लगाइ ,
उस पल तुम्हारी याद आई .


माना मनन के विपरीत चलने में जीवन बड़ा ही विरल है ,
किन्तु विधाता ने 'समय -चक्र ' दिया है ,जो हर प्रभाव का हल है .
समय बीता और जीवन में एक विचित्र नवीनता आई ,
मैंने जन्म दिया 'कान्हा ' को और मैं पूर्ण स्त्री कहलाई .
माँ अपने ही इक अंश के लिए , असीम पीड़ा है सहती ,
शायद यही वजह है , दुनिया माँ को 'भगवत -रूप' है कहती .
जब मेरे ही उस अंश ने मुझे , 'माँ ' की आवाज़ लगायी ,
उस पल जीवन में सुखद नवीनता छाई .


शिखर --

कल 'चंचला' थी , आज घर में भार्या है ,
कल तक आगे की चिंता थी , अब आज में उलझी हुई है .
कहानी यह कोई नयी नहीं , कल फिर कहीं दोहराई जाएगी
फिर किसी की शव - राख , सिन्दूर बन ,मांग में सजाई जाएगी .
कल फिर किसी शिखर से , कोई शिखा छूट जाएगी .
फिर 'शिखर ' तो बस नाम का होगा , आत्मीयता तो टूट जाएगी .
बस कुछ लिखता रहूँगा , बनता रहूँगा लकीरों जैसा ,
विधि के आगे तो मनु -पुत्र भटकता रहा है फकीरों जैसा .
इस कविता के पाठक ने जब जब अपनी पलकें झपकाई ,
उस पल तुम्हारी याद आई ....

Thursday, August 27, 2009

तेरे जाने के बाद ...

As you all know the conversation of Shikhar and his beloved one in previous poem, this time they meet after four years. Now Shikhar is married. He is happy with his wife and a cute daughter. Shikhar explains her that life without you is not so bad, as he had thought it to be.

Here it goes........

तेरे जाने के बाद कुछ भी पहले जैसा नहीं रहा . वक़्त बदला , दुनिया बदली और मै भी बदल गया . सच कहूँ , बहुत कुछ जाना है तेरे जाने के बाद .


(Small family is special....)
तुमसे मिल कर जाना था क्या होता है संसार
समय साथ बिताकर समझ पाया था प्यार ,
पर क्या होता है एक नवोदित परिवार
ये जाना तेरे जाने के बाद .

(Wife respects my mom.......)
तुने ही बनाया था इस जीवन को प्रणय -गान
तुने ही बताया था क्या है सपनो का सत्कार ,
रीति रिवाज़ सब बुन डाले थे गिन डाले थे
पर क्यूँ करती है वो मेरी माँ का सम्मान ,
ये जाना तेरे जाने के बाद .


(Language of a kid...........)
नयनो की भाषा तो तुमने ही सिखाई थी
निः -शब्द होकर गीत की झंकार सुनाई थी ,
कोई और भाषा न संकेत मै जानता था
पर कैसे समझ लेता हूँ वो तोतली जुबां ,
ये जाना तेरे जाने के बाद .


(While coming to home in the evening, how I remember the gift for my daughter.....)
उन वादों में जो शक्ति थी , वो कहीं और नहीं
उन कसमों में जो हठ थी , जिद्द थी , वो कहीं और नहीं
अब वादे तो बस बातें लगते हैं
खोखली इक्षा के धागे लगते हैं
पर क्यूँ याद रहती है नन्ही पारी की किताब ,
ये जाना तेरे जाने के बाद .



(How my wife manages home........)
वो जो रिश्ता जोड़ा था तुझसे , अटूट था
स्वप्न धूमिल था पर लेशमात्र भी न झूठ था ,
हमने मिल कर बांधे थे जन्म मरण के धागे
पर कैसे बांधती है वो धैर्य व सामंजस्य की गाँठ
ये जाना तेरे जाने के बाद .

So, the life moves on and we find new happiness at each and every step... No need to say- "एक साँस ही तो है लेनी ले लूँगा ..." or "कैसे कहूँ मुझसे मेरी दुनिया छूटीहै ...."



Dialogues of the Girl..? Next time..!!!!!!

कैसे कहूँ

This time the topic of poetry is the separation of a couple and arrange marriage of the girl with a guy, suggested by father as usual.


शिखा --

कैसे कहूँ कि आज तुझे भुलाया है
कैसे कहूँ कि आज खुद को झुठलाया है
कैसे कहूँ कि वो वादे तो सच थे , पर ये दुनिया झूठी है
कैसे कहूँ कि आज मुझसे मेरी दुनिया छूटी है.


कैसे कहूँ कि अब ये जीवन किसी और का है,
लकीरें तो तेरी हैं पर ये हाथ किसी और का है
माँ कि ममता का मोल आज चुकाया है
पिता के सम्मान को सम्मान दिलाया है
भूल जाऊँगी कि यहाँ भी एक ह्रदय था
जिसमें भी था सम्मान और प्रेम अश्रु विलय था
कैसे कहूँ कि एक नया परिवार तो पाया है ,
पर सपनों का अपना संसार गंवाया है
कैसे कहूँ कि आज तुझे भुलाया है .


शिखर --

सच झूठ नहीं है कुछ भी ये सब जीवन कि माया है ,
लकीरों का ही तो खेल है पगली , जीवन तो उसकी छाया है .
कभी मिलो जीवन में फिर से , तो रास्ते बदल देना
जो बीत गया वो अच्छा था , उन किस्सों को न कोई शकल देना .
मेरा भी जीवन है , अभी कई काम हैं बाकी
परंपरा मेरी भी साथी , छुटकी है अभी बाकी .
जीवन जीना ही तो है किसी तरह जी लूँगा ,
हर पल एक साँस ही तो है लेनी , कोशिश करूँगा ले लूँगा
कैसे कहूँ नीरसता को निज आधार बनाया है ,
कैसे कहूँ कि आज तुझे भुलाया है .


माँ ,सब जानते हुए --
जन्म दिया मैंने पर तुझको संसार न तेरा दे पायी
डोली में हर खुशियाँ दी हैं , श्रृंगार न तेरा दे पाई .
उस दिन आंसू थे डोली में तेरी , जो मोती बन कर बह गए
संसार मूर्ख होगा रे पगली , मैंने जन्म दिया है तुझको ,
वे व्यथा -दूत बन कर तम में , मुझसे ही सब कह गए .
कैसे कहूँ विवशता को अवलंब बनाया है ,
कैसे कहूँ मैंने भी अब तुझे भुलाया है .