Tuesday, October 27, 2009

पूरा चाँद

As all my previous posts were in sad mood, this time I tried 'श्रृगार -रस'.....



आज तुम साथ हो और मेरा चाँद पूरा है
तन मन वार दूं इस पल पर तेरे मन पर
जैसे पत्ते पर टिकी एक सुबह कि ओस हूँ मै
जब तक तू आधार है , सजल और ठोस हूँ मै
पूर्ण सूर्य बिम्बित है मुझमे अब , हाँ मुझे ये अहंकार है
सुहागन को ही पूर्ण कहते है यहाँ ए बूँद , यही तो संसार है
तुम बिन मेरा अहम् , बिम्ब व आधार अधूरा है ,
आज तुम साथ हो और मेरा चाँद पूरा है .

ये मंद हवा , ये निशा , ये ठहरा हुआ पल और तुम ,
स्तब्ध सासें , रुकी धड़कन , सिमटती दूरियां और तुम
आज जो छू ले इस मन को , जोगन बन जाए सुहागन
फिर ये भी स्वीकार है कि फिरूं आजीवन बनकर बिरहन
तेरी प्रीत कि भाषा से लिखा आज मेरा धर्म , ग्रन्थ और अर्थ है
यदि इश्वर विश्वास है तो वो तू ही है ,शेष भगवा , व्रत , पूजा तो व्यर्थ है
तेरा नाम जब पुकारूँ तो लगे अब भजन वो पूरा है ,
आज तुम साथ हो और मेरा चाँद पूरा है .

Monday, October 5, 2009

धूप में......

कल तोड़ रहा था पत्थर दिन की धूप में,
एक एक पत्थर तोड़ कर मैं सपने जोड़ रहा था
कुछ लोग जा रहे थे पास से,छाँव के रास्ते से
कुछ तरस खाते,कुछ उपहास करते,कुछ विधि को समझ न पाते
जीवन का संगीत खोजता मै कोयल की कूक में,
कल तोड़ रहा था पत्थर दिन की धूप में,

उन पथिकों में से एक रुका,देखा नव -योवना थी
नयापन कहो या विचित्रता,उसमें कुछ तो बात थी
मै पत्थरों को छोड़ इमारत की बात करता
वो अपने पथ को छोड़ मंजिलों की बात करती
हमने विचारों-कल्पनाओं का झोपड़ा सा बना लिया
जो टूट सकता है विधाता की एक फूक में ,
कल तोड़ रहा था पत्थर दिन की धूप में

उसने मुझसे वादे मांगे,कसमें मांगी और विश्वास दिया
मै खड़ा रह गया चिलकती धुप में जैसे अभी ठगा गया
एक कुल्हाड़ी और दो हाथ,कैसे निभाएंगे ये तेरा साथ
जिस देस महेल की तुम हो उसकी मै तो नीव बनता हूँ
सफ़ेद गुलाब हैं शौक तुम्हारे मै गरीब गेहूं उपजता हूँ
वादे कसमें टूट जाते हैं दो वक़्त की भूख में
कल तोड़ रहा था पत्थर दिन की धूप में .


उसके तो ऊंचे सपने थे,बात वो मेरी मान गयी
गेहूं और गुलाब का अंतर आज परी वो जान गयी
रास्ते उसके भी विरल थे, उसने चलना न छोड़ा
सांझ यहाँ अब हो चली थी,मैंने एक पत्थर और तोडा
अब फिर उसी एकांत में हूँ,पत्थरों से पथ बनाता
फिर किसी के रास्ते को स्वप्न में मन्ज़िल बनाता
अब सोचता हूँ काश उसको रोक लिया होता
फिर आंसू को मिट्टी ने शायद सोख लिया होता
आजीवन ग्लानि रहेगी उस पल भर की चूक में ,
कल तोड़ रहा था पत्थर दिन की धूप में .......

थकान ...

As most of us are away from our homes and families chasing the aims, Sometimes we get tired and we ask ourselves that why we are walking with bleary eyes now, when the decision was wholly ours to leave our homes......

आज क्यूँ थका थका जब स्वयं ही चुना था पथ
कल को सवारने कल चल दिया था
स्वजन की कोमल भावना को कल यहीं आहत किया था
जय के सारे साधन बटोरने
निज कर से दुनिया टटोलने , कल चल दिया था
आदि में एकांत था अब उस मेले में आ घिरा हूँ
परिचय है जहाँ पर पद से धन से ,उस उत्सव का हिस्सा बना हूँ
शिखर मन क्यूँ डोलता है , जब स्वयं ही ली थी शपथ .
आज क्यूँ थका थका जब स्वयं ही चुना था पथ


I still remember one of my classmates, who wanted to do MCA, but she couldn't. Reason being financial problems. Next stanza is dedicated to her....


आज क्यूँ पीछे जाने की चाहत है मन में ,
उन लोगों से मिल कर आने की चाहत है मनन में
जी चाहता है उन्हें भी साथ खींच लूँ
उन्हें भी दुनिया दिखाऊँ ...
जो गुण यहाँ सब में है , उसमे भी था ..
जो उत्साह यहाँ सब में है , उस में भी था ,
वो विशवास जल का बुलबुला था , जो उसे एक दिन खोना ही था ,
किस जीत से प्रसन्न थी कल , जब आज उसे रोना ही था
जो हमारा पेट भरता है , वह इसी देश का किसान है ,
मै जिसकी बात कर रहा हूँ वो इसी गरीब की संतान है .
आज कैसा प्रसन्न -चित्त जब मन में रह गयी कसक
आज क्यूँ थका थका जब स्वयं ही चुना था पथ.......