Monday, October 5, 2009

धूप में......

कल तोड़ रहा था पत्थर दिन की धूप में,
एक एक पत्थर तोड़ कर मैं सपने जोड़ रहा था
कुछ लोग जा रहे थे पास से,छाँव के रास्ते से
कुछ तरस खाते,कुछ उपहास करते,कुछ विधि को समझ न पाते
जीवन का संगीत खोजता मै कोयल की कूक में,
कल तोड़ रहा था पत्थर दिन की धूप में,

उन पथिकों में से एक रुका,देखा नव -योवना थी
नयापन कहो या विचित्रता,उसमें कुछ तो बात थी
मै पत्थरों को छोड़ इमारत की बात करता
वो अपने पथ को छोड़ मंजिलों की बात करती
हमने विचारों-कल्पनाओं का झोपड़ा सा बना लिया
जो टूट सकता है विधाता की एक फूक में ,
कल तोड़ रहा था पत्थर दिन की धूप में

उसने मुझसे वादे मांगे,कसमें मांगी और विश्वास दिया
मै खड़ा रह गया चिलकती धुप में जैसे अभी ठगा गया
एक कुल्हाड़ी और दो हाथ,कैसे निभाएंगे ये तेरा साथ
जिस देस महेल की तुम हो उसकी मै तो नीव बनता हूँ
सफ़ेद गुलाब हैं शौक तुम्हारे मै गरीब गेहूं उपजता हूँ
वादे कसमें टूट जाते हैं दो वक़्त की भूख में
कल तोड़ रहा था पत्थर दिन की धूप में .


उसके तो ऊंचे सपने थे,बात वो मेरी मान गयी
गेहूं और गुलाब का अंतर आज परी वो जान गयी
रास्ते उसके भी विरल थे, उसने चलना न छोड़ा
सांझ यहाँ अब हो चली थी,मैंने एक पत्थर और तोडा
अब फिर उसी एकांत में हूँ,पत्थरों से पथ बनाता
फिर किसी के रास्ते को स्वप्न में मन्ज़िल बनाता
अब सोचता हूँ काश उसको रोक लिया होता
फिर आंसू को मिट्टी ने शायद सोख लिया होता
आजीवन ग्लानि रहेगी उस पल भर की चूक में ,
कल तोड़ रहा था पत्थर दिन की धूप में .......

No comments:

Post a Comment